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लॉकडाउन से लाखों बुनकरों के सामने रोजगार पर संकट

बाराबंकी। कोरोना के बढ़ते संक्रमण को देखते हुए विश्व स्वास्थ्य संगठन और स्वास्थ्य मंत्रालय ने अपनी नई गाइडलाइन में कहा कि बाहर निकलने पर लोग अपना चेहरा जरुर ढकें। डॉक्टरों ने ये भी सुझाव दिया है कि चेहरा ढकें चाहे वो मॉस्क साधारण (कपड़ा का बना) ही क्यों न हो। ग्रामीण भारत में गमछा का इस्तेमाल चेहरा ढकने के लिए बहुतायत होता है लेकिन अब इसकी किल्लत हो गई है। अंगौछा बनाने वाले बुनकर और कारीगर भी लॉकडाउन के चलते संकट में हैं।

बाराबंकी जिले के कई इलाकों में बुनकर अंगौछा बनाते हैं, जिनकी संख्या करीब 75000 है, लेकिन लॉकडाउन में कच्चे माल की सप्लाई न होने से उनका कामकाज ठप है। जो माल पहले से बनकर तैयार रखा है वो बाजार तक पहुंच नहीं पा रहा है। यूपी में बाराबंकी जिला मुख्यालय से 20 किलोमीटर पूरब दिशा में पड़ने वाले जैतपुर इलाके के दर्जनों गांवों में बड़े पैमाने पर बुनकर अगौछा और स्टोल बनाने हैं। लेकिन लॉकडाउन के बाद यहां का काम काजबंद है।

जैतपुर निवासी इमताज अंसारी कहते हैं, “बड़े-बड़े डॉक्टर और लोग कहते हैं की पूरे भारत में मास्क की किल्लत है लोग अंगोछा और स्टोल सर में और मुंह पर बांधकर भी कोरोना वायरस की महामारी से बच सकते हैं, लेकिन जब हम कारीगर लोगों को काम के लिए माल ही नहीं मिलेगा तो कैसे अंगोछा और स्टाल (दुपट्टा )बनाकर लोगों तक पहुंच जाएंगे। अब हमारे हैंडलूम और कारखाने सिर्फ शोपीस बनकर रह गए हैं।”

उत्तर प्रदेश की महत्वाकांक्षी योजना वन डिस्ट्रिक वन प्रोडेक्ट में भी बाराबंकी के टेक्सटाइल्स को जगह दी गई है। जिले के बुनकरों के मुताबिक उनके द्वारा तैयार किए गए उत्पादन भारत के कई राज्यों के अलावा पाकिस्तान और बांग्लादेश समेत कई अन्य देशों को जाते हैं। हैंडलूम के लिए ज्यादातर कच्चा माल (सूत वाला धागा) कोलकाता और तमिलनाडु से आता है लेकिन लॉकडॉउन के चलते आवाजाही ठप है।

जैतपुर के मोहम्मद नसीफ के घर में हैंडलूम लगा है। ये उनका पारंपरिक और पारिवारिक पेशा है, जिसमें घर का लगभग हर सदस्य शामिल होता है। वो कहते हैं, “जबसे लाकडाउन लगा है, सूत, धागा, रंग कुछ नहीं आ पा रहा है। जितना सामान था उतने दिन घर में काम हुआ। अब घर पर हैं कोई काम नहीं लेकिन बुनने के लिए कच्चा माल भी नहीं। दूसरा जो हमारे पास पहले से माल बनकर तैयार है वो बाजारों में नहीं जा पा रहा है। जो पैसे थे वो खर्च हो गए। आगे तो पेट पालना मुश्किल हो जाएगा।”

यहीं पर तीन बच्चों के साथ छोटी सी झोपड़ी में बैठी परवीन निशा बताती हैं, उनके पति विसातखाना (कॉस्मेटिक और महिलाओं के उपयोग के दैनिक उत्पाद) लेकर गांव गांव जाते थे, मैं गमछा भी बुनती थी, जो वो बेच भी लाते थे, लेकिन अब हमारे दोनों काम ठप है। न पति बाहर से पैसे ला पा रहे हैं और न मैं यहां काम कर पा रहीं हूं। हमारे बच्चे बीमार है घर में एक दाना खाने को नहीं है कुछ समझ में नहीं आता है आगे के दिन कैसे बीतेंगे?”

परवीन निशा के मुताबिक उन्होंने सुना है कि सरकार सड़क किनारे ठेला और दूसरी दुकाने लगाने वालों को 1000 रुपए महीना दे रही है लेकिन हम जैसे को पैसे कैसे मिलेंगे ये नहीं पता। कपड़ों के कारीगर मोहम्मद निहाल कहते हैं, कि लॉकडाउन के धीरे-धीरे 10 दिन बीत गए और अब जमा पूंजी खत्म हो गई है। दरवाजे पर सब्जी बिकने आती है लेकिन पैसे नहीं है तो सब्जी कहां से खरीद लें।”

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