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कैसे बदल गया यूपी में बिरादरी का संकट: 22 साल पहले की आँखों के सामने

लखनऊ, उत्तर प्रदेश: बिहार में जातियों की जनगणना के बाद, अब उत्तर प्रदेश सहित देश के कई राज्यों में ऐसी मांग उठ रही है, जिसमें अनुसूचित जातियों को सवर्णों के साथ बराबरी के अधिकार दिलाने की मांग की जा रही है। कुछ दल, जो सामाजिक न्याय के नाम पर राजनीति कर रहे हैं, उन्हें लगता है कि इससे सामाजिक समानता में सुधार हो सकता है और उनके लिए न्यायपूर्ण परिवर्तन आ सकता है।

उत्तर प्रदेश में सपा (समाजवादी पार्टी) के नेता अखिलेश यादव भी लगातार इस मांग को बढ़ावा देते रहे हैं। इस कॉन्टेक्स्ट में, हम एक 22 साल पुरानी रिपोर्ट की चर्चा कर रहे हैं, जो राज्य में पिछड़ों की स्थिति के आकलन के लिए तैयार की गई थी। इस रिपोर्ट के अनुसार, 2001 में हुकुम सिंह पैनल गठित हुआ था और उसने रिपोर्ट में दिए गए आंकड़ों के मुताबिक उत्तर प्रदेश में ओबीसी जाति की आबादी 54.05 फीसदी थी, जो 1991 में केवल 41 फीसदी थी।

इसकी वजह क्या थी?

इस वृद्धि की प्रमुख वजह थी उत्तराखंड राज्य का गठन, जिससे एक बड़ी सवर्ण आबादी पहाड़ी राज्य में चली गई। इसके अलावा, ओबीसी जाति की सूची में 24 नई जातियों को भी शामिल कर दिया गया था। हालांकि इसके बाद भी यूपी की स्थिति बिहार से थोड़ी अलग है और यहां ओबीसी जाति भारी मानी जाती है, लेकिन सवर्ण जातियों की आबादी भी लगभग 20 फीसदी है।

सवर्णों का आकड़ा

हुकुम सिंह पैनल की रिपोर्ट के मुताबिक, राज्य में सवर्ण जातियों की आबादी 18 से 20 फीसदी है। इसमें ब्राह्मणों की आबादी 12 से 14 पर्सेंट है, जबकि ठाकुर जाति की आबादी 7 से 8 फीसदी है। ब्राह्मणों के बाद, ओबीसी जाति की सबसे अधिक संख्या वाली बिरादारी यादव की है। राज्य में यादवों की संख्या 9 से 11 फीसदी तक है, और इन्हें ओबीसी वर्ग में देखा जाता है, जिनकी हिस्सेदारी 19 से 20 फीसदी की है।

अनुसूचित जातियाँ और जाटव समुदाय

यूपी में अनुसूचित जातियों में जाटव समुदाय सबसे अधिक हैं। इसके बाद, मुसलमानों की संख्या भी सीमित मात्रा में है। यही वजह है कि सूबे की दलित राजनीति जाटवों और ओबीसी जातियों के इर्द-गिर्द ही घूमती रही है। हुकुम सिंह पैनल ने अपनी रिपोर्ट में गांव और शहरों में रहने वाली आबादी का भी विस्तार से विश्लेषण किया था।

ग्रामीण और शहरी इलाकों में आबादी का अनुमान

रिपोर्ट के अनुसार, ग्रामीण इलाकों में सवर्ण जातियों की आबादी अपेक्षाकृत कम है, जबकि शहरों में ज्यादा है। ग्रामीण क्षेत्रों में सवर्णों की संख्या 22.42 फीसदी आंकी गई थी। इसके अलावा, दलितों की संख्या 25 फीसदी और ओबीसी की आबादी 37.50 फीसदी मानी गई। वहीं मुसलमानों की संख्या 13.36 फीसदी है। इसके उलट शहरी इलाकों में सवर्ण बिरादरियों की आबादी 32 फीसदी से कुछ अधिक है, जबकि एससी-एसटी वर्ग की आबादी 15.27 फीसदी है।

यह डेटा 1999-2000 के दौरान का है, इसलिए नए सिरे से रिपोर्ट तैयार की जाए तो इसमें कुछ अंतर आ सकता है।

यह 22 साल पुरानी रिपोर्ट दिखाती है कि यूपी में सवर्ण बिरादरी की आबादी में तबादला हुआ है, लेकिन ओबीसी समुदाय आज भी सब पर भारी है। इस बदलते संदर्भ में, राज्य के सियासी मंच इसे महत्वपूर्ण मुद्दा मान रहे हैं और सामाजिक समानता के लिए कई कदम उठा रहे हैं।

इस रिपोर्ट का माध्यम से हमने देखा कि यूपी के सवर्ण और अनुसूचित जातियों के बीच जनसंख्या में विभिन्नता है, जो उनके सामाजिक स्थान को प्रकट करती है। यह मांग और चुनौती रखती है कि समाज में सामाजिक समानता के प्रति जोरदार कदम उठाए जाएं ताकि सभी नागरिकों को न्याय और समानता की दिशा में एक कदम आगे बढ़ा जा सके।

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